डा. वासिष्ठ का तीसरे कविता संग्रह 'जुगनू जितनी औकात' का विमोचन

हिन्दी दिवस के पावन मौके पर प्रदेश के  उप मुख्यमंत्री श्री मुकेश अग्निहोत्री ने राज्य स्तरीय हिन्दी दिवस समारोह में सोलन के माने जाने साहित्यकार  डा.शंकर वासिष्ठ की पुस्तक “जुगनू जितनी औकात” का लोकार्पण किया।  वरिष्ठ साहित्यकार डा. शंकर वासिष्ठ का जुगनू जितनी औकात शीर्षक से तीसरा कविता संग्रह साहित्य संस्थान गाजियाबाद के सौजन्य से प्रकाशित हुआ है। डा. वासिष्ठ ने इस संग्रह में समाज की व्यथा-कथा और उसके कारणों को बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में उकेर कर जो रेखाचित्र खींचा है, वह आज की समस्त सोच को दर्पण की


भांति स्पष्ट ला कर रख देता है। सामाजिक-भौतिकतावादी सोच व निंदनीय प्रयास, राजनैतिक लिप्सा व लोकतांत्रिक सीमाओं का उल्लघन, इतना ही नहीं नेताओं की अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता, समाज की अधिकार सजगता व कर्त्तव्य विमुखता, स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को खूब दर्शाया और लताड़ा है। कोविड काल का मार्मिक चित्रण व पल्लू झाड़ने वालों की मानवता को चेताता है। धर्म के नाम पर मानवता का हनन व संकीर्ण चिंतन सोचने को

विवश कर देता है। सुभाष, परमार व त्यौहारों का सटीक चित्रण अतीत की समृद्धता को उजागर करता है। प्राकृतिक छटा को भी खूब निहारा और सौंदर्यपूर्ण शब्दों में संजोया है। 


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सुबकते पन्नों पर बहस : एक सार्थक संवाद

  कवि-आलोचक

डॉ. अनिल पांडेय ने सुबकते पन्नों पर बहस की कविताओं के माध्यम से समकालीन हिंदी
कविता पर जो आलोचनात्मक टिप्पणियां दी हैं वे सुबकते पन्नों पर बहस के कवि
  अनुज देवेंद्र धर के लिए तो निसंदेह उत्साहवर्धक होंगी ही -कविता के
मर्मज्ञ पाठकों के लिये भी लाभप्रद होंगी जो साहित्य के इस दमघोटू माहौल में
श्रेष्ठ कविताओं की तलाश करते रहते हैं। दिल की गहराइयों से आपका आभार डॉ अनिल
पांडेय ।

अपने
इस संवाद में कवि देवेंद्र धर की कविताओं पर
  टिप्पणी दर्ज करते हुए
डॉ. अनिल पांडेय कहते हैं:…ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं देवेन्द्र धर के पास जिनको
आप मजबूत कविताएँ कह सकते हैं…यह संग्रह अमूमन सुबकते पन्नों पर बहस जो शीर्षक
है उसको इतनी सार्थकता के साथ अभिव्यक्त करता है
, इतनी
सार्थकता के साथ मजबूती देता है कि आप कल्पना नहीं कर सकते
|” 

अनिल
पांडेय जी ने गांव अब लौट जा कविता से अपना संवाद प्रारंभ किया।संग्रह की एक सशक्त
कविता इंतज़ार पर भी
 
इस संवाद में चर्चा की है।कविता की अंतिम पंक्तियों- हम जानते
हैं/बीज हैं हम फिर उगेगें/बस मौसम और खाद का इंतजार है-पर अपनी प्रतिक्रिया
व्यक्त करते हुए आपने कहा है:”बस मौसम और खाद का इंतजार है और ये कि बीज हैं
हम फिर उगेंगे यह एक कविता की सबसे मजबूत सम्भावना है कि जो बार-बार दबाए कुचले
मारे जाने के बाद भी उग आने और अपनी उपस्थित दर्ज करवाने के लिए वह संकल्पित है और
प्रतिबद्ध
| एक और कविता मैं- वो गीत नहीं लिखूंगा- पर डॉ
पांडेय का महत्वपूर्ण व्यक्त है:

“…कवि जो कहना चाहता है या लिखना चाहता है वह मजबूती के साथ लाता है|
उसको लय से नहीं लेना देना, उसको तुकबंदियों
से नहीं लेना-देना और सच में जिसको आप लोकप्रिय कहते हैं…लोकप्रिय होना एक अलग
बात है…लोकहित में होना एक अलग बात है
| छंदबद्ध और
छंदमुक्त के बीच संघर्ष और लड़ाइयों की जो वजह है और लोकप्रियता और लोकहित की भी तो
लोकप्रिय कवि नहीं होना चाहता
| कवि अगर पर्दे के पीछे भी है
और अगर लोकहित में मजबूत अभिव्यक्ति दे रहा है लोकप्रिय ना भी हो तो उसे कोई
अपेक्षा नहीं है
| “

आपका
कवियों और प्रकाशकों को
 
निम्न संदेश वस्तुतः अत्यंत महत्वपूर्ण है:

“…प्रकाशक भी यदि अपनी ज़िम्मेदारी को ठीक से समझे और कवि…जो महानगरों तक
सीमित हो जा रहे हैं वह अगर गाँव में बढने और पहुँचने का ख्व़ाब पालें जैसे एक समय
बिसारती हुआ करते थे गाँव में जो चूड़ियाँ
, कंगन वगैरह बेचते
हैं
, अगर उस तरीके से ये कविता लेकर लोगों को सुनाने के लिए
निकले तो मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि ये ऐसी कविताएँ हैं जो एक मजबूत नींव
डाल सकती हैं परिवर्तन और बदलाव की ।

 परिवर्तन और बदलाव अचानक नहीं आते ये धीरे धीरे आते हैं, धीरे धीरे कार्य करते हैं धीरे धीरे लोगों की चेतना में प्रवेश करते हैं
और धीरे धीरे लोग अपने घरों और महलों को छोड़कर सडकों पर आते हैं
| यह शुरुआत भी कवियों को करना पड़ेगा| गीत ऐसा लिखना
पड़ेगा कि उससे आन्दोलन और क्रांति की आवाज़ आए
|”

 

 

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हरनोट बड़े विजन और चमत्कारिक भाषा के लेखक

 हरनोट के उपन्यास नदी रंग जैसी लड़की का देश के 2 प्रख्यात लेखकों ने किया लोकार्पण

शिमला रोटरी क्लब टाउन हॉल में आज हिमाचल क्रिएटिव राइटर्स फोरम द्वारा विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रसिद्ध कथाकार एस.आर.हरनोट के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास “नदी रंग जैसी लड़की” का लोकार्पण मुख्य अतिथि श्री राकेश कंवर, सचिव भाषा एवं संस्कृति, हिमाचल प्रदेश सरकार तथा साहित्य जगत के दो बड़े लेखकों प्रो.अब्दुल बिस्मिल्लाह (प्रख्यात उपन्यासकार) और प्रो.सूरज पालीवाल(प्रख्यात आलोचक) ने अपने कर कमलों से किया। प्रो.बिस्मिल्लाह ने इस संगोष्ठी की अध्यक्षा की जबकि मुख्य वक्ता प्रो. सूरज पालीवाल थे। परिचर्चा में अन्य वक्ताओं में डॉ.राजेंद्र बड़गूजर, डॉ. नीलाभ कुमार, प्रशांत रमन रवि और जगदीश बाली ने उपन्यास पर बहुत ही सारगर्भित वक्तव्य दिए। यह जानकारी क्रिएटिव राइटर फोर्म के अध्यक्ष व सेतु साहित्यिक पत्रिका के संपादक डॉ.देवेंद्र गुप्ता ने आज शिमला में मीडिया को दी।

इस अवसर पर प्रो.अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा कि एस.आर.हरनोट का यह उपन्यास वास्तव में प्रकृति  की नैसर्गिकता में अमानवीय हस्तक्षेप की कथा है। भारतीय संस्कृति में “प्रकृति और पुरुष” की को दार्शनिक परिकल्पना है उसमें”पुरुष” का तात्पर्य या तो ईश्वर है या फिर उसके द्वारा सृजित मानव। किंतु “पुरुष” का वही रूप जब “परुष” हो जाता है तो प्रकृति नष्ट हो जाती है। परुष का मतलब कठोर और निर्दयी है। यही मानव का अमानव हो जाना है। प्रकृति कभी अपकृति नहीं हो सकती इसलिए नैसर्गिक ही रहती है। जैसे इस उपन्यास की मुख्य पात्रा सुनमा देई। हरनित ने इन्हीं चिंताओं और संघर्षों को बहुत गहरे इस उपन्यास में उकेरा है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

मुख्य वक्ता और प्रख्यात आलोचक प्रो.सूरज पालीवाल ने अपने उद्भोधन में कहा कि हरनोट हिन्दी के विरले कथाकार हैं जिनके पास हिमाचली जीवन की अछूती और अनूठी कथाओं का भरा-पुरा खजाना है। हरनोट को बधाई देते हुए पालीवाल ने कहा कि अपने नए उपन्यास में हरनोट ने पर्यावरण, पानी और स्त्री की समस्या को गहरे रूप में उठाया है । हिंदी में परंपरा है और यह परंपरा बहुत बड़े लेखकों के साथ जुड़ी हुई है कि वे अपनी एक रचना से जाने जाते हैं लेकिन हरनोट ने उस परंपरा को तोड़ा है इसलिए वे हिडिंब जैसे महत्वपूर्ण और चर्चित उपन्यास की सीमाओं से बाहर गए हैं, उन्होंने उन हदों का अतिक्रमण किया है, जिसे बड़े से बड़े लेखक नहीं कर पाए। इसीलिए  हरनोट बड़े कथाकार हैं, उनका विजन बड़ा है और भाषा की चमत्कारिक पकड़ उनके पास मौजूद है। 

उच्च अध्ययन संस्थान के विजिटिंग फैलो डॉ. नीलाभ ने हरनोट के नए उपन्यास ‘नदी रंग जैसी लड़की’  पर परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए हुए कहा कि यह उपन्यास अपने ‘कहन’ के जिस सरलतम और सहजतम रूप से हमें परिचित कराता है, वह समकालीन हिंदी कथा संसार में अनूठा है ।

हरनोट के उपन्यास पर अपनी बात रखते हुए उच्च अध्ययन संस्थान शिमला में बतौर स्थायी फैलो डॉ. राजेन्द्र बड़गुजर ने कहा कि उपन्यास का फलक हिमाचल प्रदेश की लोक संस्कृति,  विरासत और उसमें भयावह बदलावों को समेटे हुए हैं। इसमें मुख्य पात्र सुनमा और शतद्रु नदी परस्पर पर्याय बन गई है।        

युवा आलोचक प्रशांत रमण रवि ने अपने वक्तव्य में कहा कि हरनोट का सद्यः प्रकाशित उपन्यास  ‘नदी रंग जैसी लड़की’ मौजूद समय में पर्यावरण संकट और स्त्री-विमर्श को केंद्र में रखकर लिखी गई एक महत्वपूर्ण कृति है। 

जगदीश बाली ने उपन्यास पर चर्चा करते हुए कहा कि हरनोट का उपन्यास उनके पहले उपन्यास ‘हिडिंब‘ व अन्य कहानियों की तरह सामाजिक व राजनैतिक सरोकारों को आवाज देती हुए एक बेहतरीन पेशगी है।  

डॉ. देवेन्द्र गुप्ता, अध्यक्ष क्रिएटिव राइटर फॉर्म ने मुख्य अतिथि, कार्यक्रम के अध्यक्ष अब्दुल बिस्मिल्लाह,  मुख्य वक्ता आलोचक सूरज पालीवाल व अन्य वक्ताओं का फोरम की और से हिमाचली टोपी, मफलर और विशेष आदरसूचक खतक से स्वागत करते हुए इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में आने के लिए विशेष आभार व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि यह एक ऐतिहासिक साहित्यिक सम्मलेन है और इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के माध्यम से हम हमारे समय की वास्तविकताओं को और भी नजदीकी से समझेंगे. उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की कि हमने पहले सेतु साहित्य पत्रिका का विशेषांक हरनोट की रचनाशीलता पर निकाला और अब उनके महत्वपूर्ण उपन्यास का लोकार्पण कर रहे हैं।

हिमाचल अकादमी के सचिव डॉ. करम सिंह ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए आभार व्यक्त किया. धन्यवाद प्रस्ताव युवा कवि दिनेश शर्मा ने प्रस्तुत किया। मंच संचालन युवा कवि और आलोचक डॉ. सत्य नारायण स्नेही ने सारगर्भित टिप्पणियों के साथ किया।

खचाखच भरे रोटरी टाउन हाल में प्रदेश के विभिन्न जिलों से आये लेखकों सहित स्थानीय लेखक, रंग कर्मी, शोद्धार्थी और हरनोट की पंचायत के बहुत से साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे. हरनित पर एमफिल और पीएचडी कर रहे शोधार्थी भी इस कार्यक्रम में दूर दूर से आए थे। शिमला में अब तक का यह बड़ा और महत्वपूर्ण आयोजन रहा जिसमें गांव के अतिरिक्त स्थानीय व प्रदेश के विभिन्न स्थानों से लगभग 150 के करीब साहित्य प्रेमी थे। धन्यवाद प्रस्ताव दिनेश शर्मा ने प्रस्तुत किया।

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हद बेहद का लोकार्पण

केशव जी के उपन्यास “हद बेहद” का लोकार्पण.. 

चाय बागान के लिए मशहूर नगरी पालमपुर में कल रचना संस्था द्वारा वरिष्ठ कवि कथाकार केशव जी के सद्य प्रकाशित उपन्यास “हद बेहद” का  लोकार्पण मुख्य अथिति ख्यात आलोचक प्रो. सूरज पालीवाल जी के हाथों सपन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार आलोचक सुशील कुमार फुल्ल ने की। उपन्यास पर पालीवाल जी के मुख्य वक्तव्य के अलावा डॉ.विद्यानिधि छाबड़ा और चंद्ररेखा ढडवाल जी के साथ मुझे भी रचना संस्था और केशव जी ने  बहुत स्नेह और इसरार के साथ इस किताब पर बोलने के लिए आमन्त्रित किया था। बहुत सार्थक संवाद रहा। पालीवाल जी ने केशव जी के इस उपन्यास और समग्र कथा चेतना पर भी गम्भीर और विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया। डॉ विद्यानिधि और चंद्ररेखा ढडवाल जी द्वारा उपन्यास पर प्रस्तुत आलेख भी बहुत सार्थक और सारगर्भित थे। 
इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया तो स्मृति में केशव जी का बहुत पहले पढ़ा सम्मोहित करता हुआ सा उपन्यास “हवा घर” तैर आया। कसौटी की तरह.. पाठकीय अपेक्षाएं जगाता हुआ। हद बेहद भी वैसी ही महीन बनावट बुनावट लिए हुए है। अनुभव अर्जित जीवन दर्शन और उससे उपजी अनेकानेक उक्तियों और सूत्र वाक्यों पर बार बार हमें रोकता हुआ। गज़ब की उधरणीयता लिए हुए। केशव का कथाकार चीज़ों, स्थितियों और घटनाओं को उनके बाहरी स्वरूप के साथ साथ उनकी भीतरी बनावट में भी निरखने परखने का कायल है। संस्कार और इंदिरा के किशोरवय प्रेम के सघन और उद्दाम आवेग को खूबसूरती से दर्ज़ करती हुई बहुत समर्थ और पठनीय भाषा। लेकिन उपन्यास का पाठ एक प्रेमकथा के रूप में ही नहीं निपटाया जा सकता। अपनी अनेक सशक्त अन्तर्कथाओं या उपकथाओं के चलते यह अपने छोटे आकार में भी महाख्यान का कलेवर लिए हुए है। डॉ नीलिमा की उपकथा, संतोष और शकुन्तला की, मकान मालकिन की, मोहन की और वरुण और प्रेमा की उपकथाएं। त्रासदियों और यंत्रणाओं को दर्ज करती हुई। दलित और स्त्री प्रश्नों को बहुत विचारोत्तेजक और प्रभावी तरीके से उठाता हुआ लेकिन इन विमर्शों की रूढ़ अवधारणाओं से काफी अलहदा तरीके से। इस उपन्यास में ही नहीं केशव जी की अनेक कहानियों और उपन्यासों के अनेक सशक्त स्त्री पात्र अलग आकर्षित करते हैं। सुखद आश्वस्ति से भरते हुए। कुल मिलाकर इस उम्दा औपन्यासिक कृति को पढ़ना मनुष्य होने की गरिमामयी अनुभूति के साक्षात्कार जैसा है। केशव जी इस उम्दा कृति के प्रकाशन लोकार्पण पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। 

आयोजन की पूर्व शाम केशव जी के घर पर सूरज पालीवाल जी के सानिध्य में ऐसी शानदार संवाद बैठिकी जमी कि रात डेढ़ बजे भी किसी का सोने जाने का मन नहीं था। मुक्तिबोध से लेकर समकाल तक सिर्फ केंद्रित साहित्य चर्चा। बहुत अर्से बाद किसी आयोजन से इस तरह भरापुरा सा लौटने का अहसास हो रहा है। बढ़िया आयोजन के लिए रचना संस्था को भी साधुवाद।
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बदला मौसम बदल गए हम

 आत्मा रंजन का लेख फेसबुक से साभार 

पर्यावरण दिवस के अवसर पर शिमला गेयटी सभागार में वरिष्ठ लेखिका डॉ. विद्यानिधि छाबड़ा जी के कथा संग्रह “बदला मौसम बदल गए हम” के हिंदी और अंग्रेज़ी संस्करणों का लोकार्पण सचिव भाषा एवं संस्कृति विभाग श्री राकेश कंवर जी के हाथों संपन्न हुआ। डॉ. विद्यानिधि छाबड़ा जी और कीकली संस्था ने बहुत स्नेह पूर्वक इस किताब पर बोलने के लिए मुझे भी आमंत्रित किया था। प्रो. मीनाक्षी एफ. पॉल, डॉ. कुलराजीव पंत और कामायनी बिष्ट और कुछ बाल समीक्षकों के साथ।

किताब में दो कहानियां विद्या जी की और एक स्वर्गीय रमा सोहनी जी की शामिल हैं। ये प्रथमत: बाल कथाएं हैं। बाल कथा की दृष्टि से पठनीयता, बोधगम्यता, कौतूहल, विस्मय, नाटकीयता, किस्सागोई जैसे तत्वों की मेरी पाठकीय अपेक्षाओं के समक्ष इन्हें उम्दा बालकथाओं की श्रेणी में खड़ा पाता हूं। लेकिन बाल कहानी मात्र की तरह पढ़ कर इन्हें निपटाया नहीं जा सकता। अभिधा में ये बाल कहानियां और लक्षणा व्यंजना में इनका पाठ समकालीन कहानियों तक पहुंचता है। जहां प्रकृति के पात्र फिर रूपक और प्रतीक बनते हुए इन्हें वृहत्तर संदर्भों की कथाएं बनाते हैं। बाल कथाओं में विचार की ऐसी सुंदर संगति कथाकार की कथा प्रतिभा से संभव हो पाती हैं। मुद्दा आधारित कथाएं होने के बावजूद भी यहां मुद्दा सतह पर तैरता हुआ नहीं दिखाई देता बल्कि कथाशिल्प में भली प्रकार अंतर्निहित या विन्यस्त है। पूरी किताब का सूत्र वाक्य मुझे पहली ही कहानी में मिलता है जब पीपल नदी से कहता है कि – उजाड़ना इंसान की फितरत है हमारी नहीं। हमें अपना सबकुछ बांटने में मज़ा आता है.. और सूत्र विचार अन्तिम कहानी में कि जानवरों में (भूख के अलावा) हिंसा या दुर्भावना पैदा करने वाला मुख्य कारण इंसान ही है।..कि इंसान का बदला मगरमच्छ बंदर से ही ले लेता है और खुश होता है। भाषा का बेहतर बर्ताव, सुरुचिपूर्ण रंगीन चित्र और साजसज्जा भी अलग आकर्षित करते हैं। 

जे. एन. यू. में नामवर सिंह जी की विद्यार्थी रही विद्यानिधि छाबड़ा ने शरुआती दिनों में महत्वपूर्ण पत्रिका हंस की राजेन्द्र यादव की संपादकीय टीम में अनेक वर्षों तक काम किया। फिर उसके बाद दशकों तक हिमाचल के महाविद्यालयों में अध्यापन व सेवानिवृत्ति के बाद इन दिनों सृजन, अनुवाद और आलोचना में गंभीरता से सक्रिय हैं। लोकार्पण समारोह में हॉल न सिर्फ खचाखच भरा हुआ था बल्कि अनेक लोगों ने अंत तक खड़े होकर भी आयोजन में शिरकत की। उम्दा किताब और उसके शानदार लोकार्पण के लिए डॉ. विद्यानिधि छाबड़ा, रमा सोहनी और कीक्ली ट्रस्ट को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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'दरख़्त की छांव में' अरूज़ और काब्य का अनूठा संगम — जगदीश बाली

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'दरख़्त की छांव में' अरूज़ और काब्य का अनूठा संगम — जगदीश बाली

 हाल ही में सतीश कुमार (शर्मा) का एक काब्य संग्रह शाया हुआ है। पुस्तक को पढ़ने के बाद जो लगा उसे यहां उंडेल रहा हूं। 
पुस्तक तीन भागों में है। इसमें हिंदी-उर्दू का अनोखा संगम देखने को मिलता है।
पुस्तक का भाग 1 हिंदी कविताओं से सुसज्जित है। आरंभ में कवि 'माँ हिंदी' के माध्यम से हिंदी भाषा का सम्मान करते हुए इसे विश्व धरोहर कहता है। 'बलि-एक अभिशाप' एक बेहतरीन कविता है जो बलि प्रथा पर एक जबरदस्त प्रहार है। इस कविता की पंक्तियाँ 'इक माँ का सब कुछ लुट गया, एक माँ को सब कुछ मिलने के बाद' अंदर तक झकझोर देती है। एक अहम सामाजिक सरोकार लिए हुए इसे भाग-1 की सबसे बेहतरीन कविता कहा जा सकता है। कविता 'महाभारत' में कवि मनुष्य को जीवन के कुरुक्षेत्र में बोझिल, क्षुब्ध, विक्षिप्त व कशाकशी से ग्रस्त पाता है। बुद्धिमान व ज्ञानशीनल भी अपने आप को अभिमन्यु की तरह दुष्ट ताकतों से घिरा है। इसमें कवि कह्ता है: ‘हलाहल घुलता रक्त में, रक्त रंजित प्रज्ञा जैसे अभिमन्यु की तरह घिरी कौरवैंद्रियों से’…। ‘औरतें अनशन पर हैं’ एक और बेहतरीन व मार्मिक कविता है जो नारी जीवन की ब्यथा को व्यक्त करती है। कवि कहता है: ‘उनके भीतर कौंधते आवाज करते शब्द नहीं ले पाते कविता का रूप…मेरे विचार से ये औरतें आज भी अनशन पर हैं।’ कविता 'दहशत' बढ़ते गुनाहों के बीच आम जन में पनपते भय को दर्शाती है। कवि कहता है: ‘गुनाहों के शहर में नहीं सोते लोग… सरेआम दफ़्न होती हैं लाशें।’ इसी तर्ज़ पर ‘सियासत’ में कवि सियासत पर आक्षेप करते हुए कहता है; ‘अब तो गुनाह की परिभाषा एक ही शब्द में दी जा सकती है और वो है सियासत।’ समाज में फ़ैले गुनाहों से निजात पाने के लिए अब शायद एक नहीं, बल्कि कई ईश्वरीय अवतारों की आवश्कता है। ‘अब कवि कवि नहीं’ बेहतरीन अंदाज़ में लेखकों की बिकी हुई व चापलूसी करती कलम पर तीखा प्रहार करती है: ‘मगर अब तेरे विचारों का संदूक पड़ा है हुक्कमरानों के तलवों के नीचे…।’  'दादी का चश्मा' में कवि दादी को याद करते हुए जीवन के सवालों को उनके तज़ुर्बे से हल करने की कोशिश करता है। 'माँ का पीहर' में जहां माँ अपने पिहर को रोज़ निहारती है, वहीं यह कविता बदलते वक्त के साथ हो रहे परिवर्तन को प्रतिपादित करती है। अब माँ के पीहर में वह नाशपाती का पेड़ व खलियान नहीं है। 'कविता का जन्म' इस बात को इंगित करती है कि किसी वस्तु का मरना नव सृजन का द्योतक है। वह कहता है कि कवि की मृत्यु के बाद कोई नई कविता जन्म लेती है। 'कविता के जन्म' के माध्यम से कवि कहता है कि जब वह खुद को पहचानने लगा तो उसके ह्रदय में कविता ने जन्म लिया। 'यात्रा' में कवि मनुष्य की भौतिक व आध्यात्मिक यात्रा की बात करता है। “कर्मभूमि’ मनुष्य के प्रयास व मेहनत की महता को दर्शाती है। कवि, कविता ‘लाचारी’ के माध्यम से कहना चाहता है कि एक गरीब आदमी के लिए सपने देखना भी मुहाल हो जाता है। कविता ‘जीवन’ जहां मानुष जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाती है, वहीं ‘मृत्यु’ में कवि कहता है कि केवल वास्तविक रूप से मर जाना ही मृत्यु नहीं, बल्कि आदमी तब भी मर जाता है जब वह उचित आचरण नहीं करता और किसी प्राणि के शोषण पर भी चुप रहता है। ‘मौन व्यथा’ में कवि कहता है कि जो व्यक्ति हर परिस्थिति में खामोश ही रहता है, वह गूंगे के समान ही है। कविता ‘दरख्त की छांव’ पर पुस्तक का शीर्षक आधरित है। इस कविता के माध्यम से कवि दरख्त व ऊंचे मकान में अंतर को प्रस्तुत करता है। दरख़्त साया देता है, ऊंचा मकान नहीं। वह कहता है कि मनुष्य को आशा रूपी दरख्त को नहीं सूखने देना चाहिए। ‘परिवार’ जीवन में माता-पिता के स्थान व महत्व को बताती है। इसी तरह ‘पिता’ में कवि कहता है कि पिता अपनी संतान को जीवन में आगे बढ़ने के लिए तैयार करता है और उन्हीं के बल-बूते वो जीवन की कठिन डगर को पार कर पाती है। कविता ‘चूल्हा’ में सतीश जी बड़े व्यंग्यात्मक रूप से वास्तु दोष से सम्बंधित अंधविश्वास पर तंज़ कसते हैं। ‘रास्ते’ प्रेरणास्पद कविता है जो मुश्किल रास्तों पर चलने का आहवान करता है। ‘सिक्के’ में कवि अपने घर के बुज़ुर्गों से विरासत में मिले अनुभव, बातों व संस्कारों की महता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। इन कविताओं को किसी निर्धारित प्रतिरूप में नहीं लिखा गया है। इन्हें मुक्त छंद कविता कहा जा सकता है। सरल, आसान व उचित शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। ख्याल बेहतरीन है और गद्यात्मक शैली लिए हुए इन कविताओं में रवानगी है। इन कविताओं का वाचन भी सुख की अनुभूति देता है।
भाग 2 व भाग 3 में हिंदी भाषा का कवि उर्दू का शायर जान पड़ता है। शायर खुद भी कहता है कि उसके इजहार-ए-ख्याल खालिस गज़लें नहीं हैं। परंतु शायर ने काफ़िया व रदीफ़ का इस्तेमाल करते हुए गज़ल जैसी ही चीज़ पेश की है। शायर कहता है: 
मैं अपने अंदाज़ में कहता हूं गज़ल, रदीफ़ काफ़िए में हर गज़ल कैद है। 
ये तकनिकी रूप से मुकम्मल गज़ल नहीं भी हों, लेकिन ख्याल, अल्फ़ाज़ व रवानगी ऐसी है कि पढ़ने वाला इन खामियों की ओर तवज्जो न्हीं देता। इसे देखिए: 
गर शोर भीतर है, तो सुनाई क्यों नहीं देता, 
मैं मुझमें हूं तो फ़िर दिखाई क्यूं न्हीं देता? अजीब मसअला है जो सहता है ज़ुल्म सबके, 
अपने जख़्मों की कभी सफ़ाई क्यों नहीं देता।’ 
इसे भी देखिए: 
उठाते हैं वही अक्सर, जो होते हैं गिराने वाले 
नज़रों से उतर जाते हैं यहां आज़माने वाले। 
मुख्तलिफ़ है हर शख्स अब तो हर किसी से, 
घर कहां बना पाते हैं बड़ा मकां बनाने वाले’
ये देखिए:
तौहीन ए सफर है थक कर बैठ जाना
हो मंजिल के मुंतज़िर तो सफर में रहो
भाग 3 में शायर कुछ शे’र और कतात पेश करता है, जिनमें वह और सुलझा हुआ और परिपक्व जान पड़ता है। इसे देखिए:
ज़िस्म के दोनों हिस्से अजब काम करते हैं
जब भी दिल रोता है, तब आंख नहीं रोती। 
इसे भी देखें: 
इस तिलिस्मी दुनियां में दो ही तो तमाशे हैं
ज़िंदगी जीने नहीं देती, उम्मीदें मरने नहीं देती। 
इस खूबसूरत कते को भी देखिए: 
अपना आप जानने का यहां न कोई रास्ता मिला 
मैने जब भी खुद को ढूंढा मुझे कोई दूसरा मिला
मैं चाह्ता था किसी रोज तो मिले शहर में आदमी
जिस-जिसको भी देखा मुझे हर कोई नया मिला
बस ऐसे ही ख्यालों को मोतियों की तरह पिरोया है सतीश जी ने। अंत मैं शायर कहता है: 
पैरहन गुरुर का यहीं उतार कर चले 
हम ग़म ए ज़िंदगी तुझे भुला कर चले 
बुलंदियां कुछ न थीं, सब कुछ तुझी में था
अब तेरा हम तुझी को लौटा कर चले 
बयां करेंगे निशां, राह में कुलाब थे
कसक की ओढ़नी यहीं हम उतार कर चले
सफ़र मैं था, सफ़र मैं हूं, सफ़र में ही रहूंगा मैं
राह में मेरे कदम निशां छोड़ कर चले 
'दरख़्त की छांव में' अरूज़ और काब्य का अनूठा संगम है। वाह सतीश जी। बेहतरीन पुस्तक के लिए आपको आफ़रीन। अलग तरह की यह पुस्तक साहित्य प्रेमियों के लिए रूचि व जिज्ञासा का सबब बनी रहेगी।
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चल चला चल

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Kitab Ganj Publication

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